संस्थान की पृष्ठभूमि
हिमालयन वन अनुसंधान संस्थान
बढ़ती जनसंख्या दबाव तथा तथा बढ़ती सम्बद्ध आवश्यकताओं ने वनों को अत्यधिक दबाव में डाल दिया है | विभिन्न प्रजातियों के प्राकृतिक- वास न केवल अवक्रमित हो रहे है अपितु खंडित एवं लुप्त भी हो रहे है | वन संसाधनों का अतिशोषण वनों पर अन्य जीवीय दबावों के साथ मिलकर विभिन प्रजातियों के प्राकृतिक पुनरुत्पादन की असफलता में परिणित होता है | पश्चिमी हिमालय में राई व तोष वन–पूर्व में कृषि-फसलों के लिए पैकिंग पेटी बनाने के लिए व्यापक रूप से प्रयोग की जानी वाली प्रजातियों के प्राकृतिक पुनरुत्पादन की असफलता, वन संरक्षकों व उपभोक्ताओं दोनों के लिए सामान रूप से बहुत चिंता का विषय है |
हिमालय वन अनुसंधान संस्थान, शिमला, हिमाचल प्रदेश की स्थापना मई, 1977 के दौरान “उच्च स्तर शंकुवृक्ष पुनर्जनन अनुसंधान केन्द्र” के तौर पर राई व तोष के प्राकृतिक पुनर्जनन की समस्या पर खोज करने के लिए हुई थी । संस्थान ने “केनेडी हाउस” में, एक कमरे से काम करने की साधारण शुरूआत की और बाद में इस केंद्र की बढ़ती अनुसंधान गतिविधियों के साथ 1978 के दौरान यू.एस.क्लब के समीप एक स्वतंत्र भवन प्रैसविला आवंटित किया गया।
भारतीय वानिकी अनुसंधान संस्थान एवं शिक्षा परिषद में 1998 के दौरान वानिकी अनुसंधान की पुनर्स्थापना के समय, भारत सरकार ने शीतोष्ण पारिस्थितिक तंत्र की परेशानियों को समझा और इस केन्द्र को एक पूर्ण विकसित अनुसंधान संस्थान बनाने का निर्णय लिया। संस्थान का दर्जा मिलने के बाद इस केन्द्र के मुख्य अधिदेश में शीतोष्ण वनों व एल्पाइन क्षेत्रों में कीट एवं रोग प्रबंधन के साथ वानिकी अनुसंधान, खदान क्षेत्रों व शीत मरूभूमियों के पारिस्थितिक पुनर्वास से संबंधित जरूरतों और शंकु-वृक्ष व चौड़े पत्तीदार वनों के पुनर्जनन की जिम्मेदारी लेना भी शामिल किया गया है । कृषि वानिकी की लोकप्रियता बढ़ाने व अन्य विस्तार संबंधित गतिविधियां भी इसके अधिदेश में शामिल है। यह केन्द्र 8 सितम्बर, 1998 से हिमालय वन अनुसंधान संस्थान, शिमला के तौर पर पुनः पदनामित हुआ है और हिमाचल प्रदेश व जम्मू-कश्मीर राज्यों की वानिकी शोध की जिम्मेवारियों को निभाने के लिए इसे भारतीय वानिकी अनुसंधान संस्थान एवं शिक्षा परिषद का एक क्षेत्रीय अनुसंधान संस्थान का दर्जा दिया गया है।